Sunday 11 September 2016

---బలి/హింస గురించిన ఆప్తవాక్యం---


సంప్రదాయికులు వైదిక హింస హింస కాదని అనరు. వేదమాతయే స్వయంగా చెప్పేదేంటంటే హింస ఈ ఒక్క యజ్ఞ విధానంలో తప్ప వేరే చోట ఉండరాదు అని.  పుణ్యపాపాలనేవి శాస్త్ర దృష్టమైన అంశాలు కనుక వాటి ద్వారా నిర్దేశింపబడిన కర్మలు కూడా శాస్త్ర దృష్టమైనవే. మనం- అసలు పుణ్య పాపాలు ఉన్నాయా లేవా- అని వాదన చేయటం ఎట్లా తగదో, అదే విధంగా - యజ్ఞంలో బలి ఇవ్వటం హింసా కాదా- అనే చర్చ చేయలేుమ. మనం యజ్ఞంలో హింస చేస్తాము. కానీ అది అహింస పాటించినట్లే.. ఎందుకంటే శాస్త్రాదిష్టమైనది కనుక.
    శాస్త్రం అనేదేంటంటే, జీవించి ఉన్న ఏ ప్రాణి అయినా ఇతర ప్రాణికి హింస కలిగించకుండా జీవించలేదు. కనుక జీవించి ఉండటమే మహా పాపాన్ని జనింపచేస్తుంది. అందుకే ఈ పాపాలను పోగొట్టుకోవటానికి నిరంతరం చేయవలసిన ప్రాయశ్చిత్తాలు ఉన్నవి- పంచమహాయజ్ఞాలు వగైరాలు- గృహస్థులు కానివారు ప్రతిరోజు దేవతలకు, ఋషులకు పితరులకు కృతజ్ఞతలు తెలుపుకోవాలి. తోటి మానవులకు, పశువులకు, క్రిమికీటకాదులుకు అన్నం పెట్టాలి. దీనివల్ల కూడా జీవంచి ఉండటం వల్ల జరిగే పాపం నశిస్తుంది.

(ఇవి మా గురుభ్రాత రామ ప్రకాశ వచనాలు.. యథాతథం ఆంగ్లం నుండి నా చేత అనూదితములు. ఆంగ్ల మూలం- క్రింద ఇవ్వబడినది-)

      Sampradyiks don't say vaidika himsa is not himsa. Even shruti herself say this yajna is where himsa is allowed  nowhere else. Since punya, papa are shastradrista ideas karmas pertaining to them is also shastradrista. Just like we can't argue whether punya papa exists or not, in the same way we can't talk about whether it is himsa or not. We do himsa in yajnas and follow strict ahimsa everywhere, because shastra has directed to do so.
     Shastra in fact says anything which is living cant continue to leave without giving himsa to another living organism. So living itself creates papa. So there is continuous prayashcitta like pancha mahayajnas to overcome the papa created.  If one is not grihasta then each day he should thank devata, rishi, pitrs, also feed humans, animals and insects. This is another way to overcome papa.

Thursday 14 July 2016

मायासीता



सीताजी की “मायासीता” का विषय वाल्मीकि रामायण में नहीं है। हमारी संस्कृति में रामायण कथा को सभी धार्मिक लोगों ने अपनी अपनी भावनाओं के अनुसार, उन्हें जो समुचित लगा, उस प्रकार बदलकर लिखलिया। जैसे तुलसी के मानस रामायण में बहुत कुछ मूल से भिन्न रहता है। सीतामाँ की पवित्रता की रक्षा करने के उद्देश्य से किसी कवि ने ऐसी कल्पना की। उसने सोचा, कि “हमारी माँ के शरीर को कोयी पापी (कहानी में ही सही) छूकर कैसे अपमानित कर सकता है..!!” तो उस कवि के काल्पनिक सीतादेवी को उसने इस प्रकार से प्रस्तुत किया- कि वनवास से पहले उन्हें अग्नि देव के पास सुरक्षित रखकर रामजी माया सीता को लेकर वन गये। और पुनः उन्हें अग्नि से वापस पाने के लिए ही रामजी ने उन्हें स्वीकारने से मना कर दिया। फिर जब अग्नि देव असली सीताजी को ले आए तो उन्हों ने स्वीकार लिया। ये हमारी परम्परा का अति सुन्दर विशेष है, कि कवि रामायण महाभारत आदि को अपनालेता है। (पर इसमें अधार्मिकता का कोयी स्थान नहीं है। धार्मिक रूप से निर्दिष्टता, और सही सोच के साथ ही इस कल्पना को किया जाता था।)

पैसा-पुण्य

एक बात--
✍कितना अज़ीब है...
✨कि इंसान जब पैसे गिनता है तब,
किसी ओर जगह पर ध्यान नहीं देता..
✨मगर जब माला फेरता है
तब हर जगह ध्यान देता है...


समाधान--
कोयी भी मनुष्य पैसे का महत्त्व जीवन में तुरन्त सीख लेता है। किसी के द्वारा अधिक बताया जाना नहीं पड़ता। पर पुण्य, अन्तःशुचि, मानसिक शान्ति आदि (माला जपना आदि कार्यों से प्राप्त होने वाले फलों) को पहचानने के लिये संस्कार और अभ्यास की आवश्यकता होती है। उसे स्वयं करके दखना पड़ता है। अनुभव से ही पता चलता है, क्यों कि वह अन्तः मन की बात होती है।
पहली दशा में अवश्य धीरे धीरे इधर उधर देखते हुये करे भले ही, पर बीच में छोडे नहीं। कुछ दिन बाद उसे उसका फल अनुभूत होने लगता है। वो भी एक दवायी जैसे काम करता है।