Thursday 14 July 2016

मायासीता



सीताजी की “मायासीता” का विषय वाल्मीकि रामायण में नहीं है। हमारी संस्कृति में रामायण कथा को सभी धार्मिक लोगों ने अपनी अपनी भावनाओं के अनुसार, उन्हें जो समुचित लगा, उस प्रकार बदलकर लिखलिया। जैसे तुलसी के मानस रामायण में बहुत कुछ मूल से भिन्न रहता है। सीतामाँ की पवित्रता की रक्षा करने के उद्देश्य से किसी कवि ने ऐसी कल्पना की। उसने सोचा, कि “हमारी माँ के शरीर को कोयी पापी (कहानी में ही सही) छूकर कैसे अपमानित कर सकता है..!!” तो उस कवि के काल्पनिक सीतादेवी को उसने इस प्रकार से प्रस्तुत किया- कि वनवास से पहले उन्हें अग्नि देव के पास सुरक्षित रखकर रामजी माया सीता को लेकर वन गये। और पुनः उन्हें अग्नि से वापस पाने के लिए ही रामजी ने उन्हें स्वीकारने से मना कर दिया। फिर जब अग्नि देव असली सीताजी को ले आए तो उन्हों ने स्वीकार लिया। ये हमारी परम्परा का अति सुन्दर विशेष है, कि कवि रामायण महाभारत आदि को अपनालेता है। (पर इसमें अधार्मिकता का कोयी स्थान नहीं है। धार्मिक रूप से निर्दिष्टता, और सही सोच के साथ ही इस कल्पना को किया जाता था।)

पैसा-पुण्य

एक बात--
✍कितना अज़ीब है...
✨कि इंसान जब पैसे गिनता है तब,
किसी ओर जगह पर ध्यान नहीं देता..
✨मगर जब माला फेरता है
तब हर जगह ध्यान देता है...


समाधान--
कोयी भी मनुष्य पैसे का महत्त्व जीवन में तुरन्त सीख लेता है। किसी के द्वारा अधिक बताया जाना नहीं पड़ता। पर पुण्य, अन्तःशुचि, मानसिक शान्ति आदि (माला जपना आदि कार्यों से प्राप्त होने वाले फलों) को पहचानने के लिये संस्कार और अभ्यास की आवश्यकता होती है। उसे स्वयं करके दखना पड़ता है। अनुभव से ही पता चलता है, क्यों कि वह अन्तः मन की बात होती है।
पहली दशा में अवश्य धीरे धीरे इधर उधर देखते हुये करे भले ही, पर बीच में छोडे नहीं। कुछ दिन बाद उसे उसका फल अनुभूत होने लगता है। वो भी एक दवायी जैसे काम करता है।